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कर्मचारियों को जल्द मिल सकती है गुड न्यूज, प्रमोशन पर मंत्री ने कही बड़ी बात
नई दिल्ली: केंद्र सरकार (Central Government) जल्द ही केंद्रीय कर्मचारियों को प्रमोशन दे सकती है. 1 जुलाई 2022 को 8,000 से अधिक केंद्रीय अधिकारियों को पदोन्नति देने के बाद अब एक बार फिर सरकार कई अधिकारियों को पदोन्नति देने की तैयारी में है. केंद्रीय कार्मिक एवं क्या जमा के बिना पदोन्नति हो सकती है? लोक शिकायत राज्यमंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने अधिकारियों के प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात के बाद कहा कि अगले 2 से 3 सप्ताह में प्रमोशन की घोषणा कर दी जाएगी.
पीआईबी के एक ट्वीट में बताया गया है कि केंद्रीय मंत्री ने प्रतिनिधिमंडल को बताया कि सरकार पदोन्नति को लेकर गंभीर है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मामले में व्यक्तिगत रुचि ली है. गौरतलब है कि इससे पहले केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों में प्रशासनिक कार्य करने वाले अधिकारियों का आखिरी बार प्रमोशन 2019 में हुआ था.
उस समय तीनों सेवाओं में 4,000 अधिकारियों को पदोन्नति दी गई थी. डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों का बिना पदोन्नति के सेवा से रिटायर हो जाना निराशाजनक है. उन्होंने कहा कि अब से सभी भावी पदोन्नतियां सुव्यवस्थित हो जाएंगी, क्योंकि 8,089 कर्मचारियों को पदोन्नति देने में सभी कानूनी बाधाओं को सुलझा लिया गया है.
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जल्द होगी प्रमोशन
केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा ग्रुप-A के अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय मंत्री डॉक्टर जितेंद्र सिंह से मुलाकात कर उनसे प्रमोशन देने की मांग की थी. इस मीटिंग के दौरान केंद्रीय मंत्री ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया कि उनकी पदोन्नति के मामलों में भी तेजी लाई जाएगी. केंद्रीय मंत्री ने कहा कि कई अधिकारियों को पदोन्नती देने की तैयारी सरकार ने कर ली है. केंद्र सरकार अगले दो से तीन सप्ताह में पदोन्नति की घोषणा कर देगी.
8,000 से अधिक कर्मचारी हुए हैं पदोन्नत
1 जुलाई 2022 को केंद्र सरकार ने तीन केंद्रीय सचिवालय कैडरों में 8,089 से अधिक कर्मचारियों के प्रमोशन को लेकर निर्देश दिए थे. केंद्रीय सचिवालय सर्विस प्रशासनिक सिविल सेवाओं में से एक है, यहां पर ग्रुप ए और ग्रुप बी पदों पर काम करने वाले कर्मचारी होते हैं. डॉ. जितेंद्र सिंह के आश्वासन के बाद अब कर्मचारियों को जल्द प्रमोशन होने की आस जगी है.
पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण देने के फैसले पर दोबारा सुनवाई नहीं: न्यायालय
नयी दिल्ली, 14 सितंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि वह पदोन्नति में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को आरक्षण की अनुमति देने वाले अपने फैसले पर दोबारा सुनवाई नहीं करेगा क्योंकि राज्यों को यह निर्णय करना है कि वे कैसे इसे लागू करेंगे। विभिन्न राज्यों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण देने में कथित तौर पर आ रही दिक्कतों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बीआर गवई की तीन सदस्यीय पीठ ने राज्य सरकारों के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को
विभिन्न राज्यों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण देने में कथित तौर पर आ रही दिक्कतों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बीआर गवई की तीन सदस्यीय पीठ ने राज्य सरकारों के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को निर्देश दिया कि वे उन मुद्दे की पहचान करें जो उनके लिए अनूठे हैं और दो सप्ताह के भीतर उन्हें दाखिल करें।
पीठ ने कहा, ‘‘हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम नागराज या जरनैल सिंह (मामले) दोबारा खोलने नहीं जा रहे हैं क्योंकि इन मामलों पर न्यायालय द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था के अनुसार ही निर्णय करने का विचार था।
शीर्ष अदालत ने अपने पूर्व के आदेश को रेखांकित किया जिसमें राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया था कि वे उन मामलों को तय करे जो उनके लिए अनूठे हैं ताकि न्यायालय इनमें आगे बढ़ सके।
न्यायालय ने कहा कि अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल द्वारा तैयार किये गए मुद्दे और दूसरों द्वारा उपलब्ध कराये गए मुद्दे मामले का दायरा बढ़ा रहे हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘हम ऐसा करने के इच्छुक नहीं है। ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका फैसला नागराज प्रकरण में हो चुका है और उन्हें भी हम लेने नहीं जा रहे हैं। हम बुहत स्पष्ट हैं कि हम मामले को दोबारा खोलने के किसी तर्क या इस तर्क को मंजूरी नहीं देंगे कि इंदिरा साहनी मामले में प्रतिपादित व्यवस्था गलत हैं क्योंकि इन मामलों का दायरा इस अदालत द्वारा तय कानून को लागू करना है।’’
वेणुगोपाल ने शीर्ष अदालत के समक्ष कहा कि इनमें से लगभग सभी मुद्दों पर शीर्ष अदालत के फैसले में व्यवस्था दी जा चुकी है और वह आरक्षण के मामले पर इंदिरा साहनी मामले से लेकर अबतक के मामलों की पृष्ठभूमि देंगे।
वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया कि राज्य कैसे फैसला करें कि कौन सा समूह पिछड़ा हैं और इसमे पैमाने की उपयुक्तता का मुद्दा खुला है।
उन्होंने कहा, ‘‘अब यह विवादित तथ्यों का सवाल नहीं रहा। कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों ने इस आधार पर इन्हें खारिज कर दिया कि इसमें पिछड़ेपन का आधार नहीं दिखाया गया है। कैसे कोई राज्य यह कैसे स्थापित करेगा कि प्रतिनिधित्व पर्याप्त है और इस संदर्भ में पर्याप्तता का पैमाना होना चाहिए जिसके लिए विस्तृत विमर्श की जरूरत है।’’
उनके तर्क पर पीठ ने कहा, ‘‘ हम यहां पर सरकार को यह सलाह देने के लिए नहीं है कि उन्हें क्या करना चाहिए। यह हमारा काम नहीं है कि सरकार को बताएं कि वह नीति कैसे लागू करे। यह स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है कि राज्यों को इसे किस तरह लागू करना है और कैसे पिछड़ेपन तथा प्रतिनिधित्व पर विचार करना है। न्यायिक समीक्षा के अधीन राज्यों को तय करना है कि उन्हें क्या करना है।’’
वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि वह प्रतिनिधित्व के सवाल पर नहीं जाना चाहते क्योंकि इंदिरा साहनी फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘‘ मध्य प्रदेश के मामले में बहुत स्पष्ट है कि आप जनगणना पर भरोसा नहीं कर सकते। यह पहली बार नहीं है जब बड़ी संख्या में मामले आए हैं। प्रत्येक मामले में न्यायालय के समक्ष लिखित दलीलें पेश करने दी जाएं। महाराष्ट्र ने कहा है कि उसने ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ पर फैसला करने के लिए समिति गठित की है। यह पहले क्यों नहीं किया गया? जहां तक सिद्धांत की बात है तो नागराज फैसले में इस बताया गया था। ’’
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि भारत के संघ की समस्या है कि उच्च न्यायालयों द्वारा तीन अंतरिम आदेश पारित किए गए हैं जिनमें से दो में कहा गया है कि पदोन्न्ति की जा सकती है जबकि एक उच्च न्यायालय के फैसले में पदोन्नति पर यथास्थिति कायम रखने को कहा गया है।
उन्होंने कहा, ‘‘ भारत सरकार में 1400 पद (सचिवालय स्तर पर) रुके हुए हैं क्योंकि इनपर नियमित तौर पर पदोन्नति नहीं की जा सकती। ये तीनों आदेश नियमित पदोन्नति से जुड़े हुए हैं। सवाल यह है कि क्या नियमिति नियुक्तियों पर पदोन्नति जारी रह सकती है और क्या यह आरक्षित सीटों को प्रभावित करेंगी।’’
वेणुगोपाल ने सरकारी अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की याचिका पर रोक लगाने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘‘2500 अन्य पद है जों सालों से नियमित पदोन्नति पर यथास्थिति आदेश की वजह से रुके हुए हैं। सरकार इन पदों पर पदोन्नति बिना किसी अधिकार के तदर्थ आधार पर करना चाहती है।’’
महाराष्ट्र और बिहार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस पटवालिया ने कहा कि शीर्ष अदालत को इसका परीक्षण करना चाहिए कि कैसे मात्रात्मक डाटा तक पहुंचा जा सकता है। उन्होंने बताया कि बिहार में 60 प्रतिशत पद खाली है।
इस पर पीठ ने कहा कि वह पहले ही पिछडे़पन पर विचार करने के लिए फैसला दे चुकी है और वह आगे नीति नहीं बता सकती।
शीर्ष अदालत ने इसके बाद आदेश दिया, ‘‘इस अदालत द्वारा पूर्व में पारित आदेश के संदर्भ, अटॉर्नी जनरल की ओर से इस मामले में विचार के लिए उठे मुद्दों पर नोट परिचालित किया गया। महाराष्ट्र और त्रिपुरा राज्यों द्वारा पहचान किए गए मुद्दे भी इस अदालत के समक्ष रखे गए। वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह और राजीव धवन ने अटॉर्नी जनरल को अलग से दिए गए मुद्दे भी रखे गए। अटॉर्नी ने कहा कि अदालत द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था को दोबारा खोलने की कोई जरूरत नहीं है।’’
अदालत ने कहा, ‘‘संविधान के अनुच्छेद 16 और 16(4)(ए) की व्याख्या के बारे में कहा गया कि इस अदालत द्वारा दिए गए फैसले से सभी मुद्दे स्पष्ट हो गए हैं जो विचार के लिए उठे। हमारे संज्ञान में लाया गया कि राज्यों के लिए अनूठे मुद्दों को 11 श्रेणियों में समूहबद्ध किया जा सकता है।यह आदेश पहले ही इस अदालत द्वारा पारित किया जा चुका है कि राज्यों को सामने आ रहे मुद्दों की पहचान करनी है और प्रत्येक राज्य उसकी अद्यतन प्रति अटॉर्नी जनरल को दे।’’
पीठ ने राज्य सरकारों के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को निर्देश दिया कि वे राज्यों के लिए अजीब महसूस हो रहे मुद्दों की पहचान करें और उन्हें इस अदालत के समक्ष आज से दो सप्ताह के भीतर जमा करें।
न्यायालय ने अधिवक्ताओं को फैसले के हवाले से अधिकतम पांच पन्नों में दो सप्ताह के भीतर लिखित नोट जमा करने को कहा और मामले की सुनवाई पांच अक्टूबर तक स्थगित कर दी।
इससे पहले महाराष्ट्र और अन्य राज्यों ने कहा कि अनारक्षित श्रेणी में पदोन्नति की गई है लेकिन एससी और एसटी कर्मचारियों की आरक्षित श्रेणी में पदोन्नति की मंजूदी नहीं दी गई है।
गौरतलब है कि वर्ष 2018 में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सरकारी नौकरियों में एससी और एसटी की पदोन्नति में आरक्षण देने का रास्ता साफ कर दिया था। न्यायालय ने कहा था कि राज्यों को इन समुदायों के पिछड़ा होने वाले ‘‘मात्रात्मक आंकड़े एकत्र’ करने की जरूरत नहीं है। अदालत ने कहा था कि वर्ष 2006 में एम नागराज मामले में दिए फैसले पर पुनर्विचार की भी जरूरत नहीं है।
एससी-एसटी कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने पर रोक नहीं: सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली: केंद्र को बड़ी राहत देते हुए उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणी के कर्मचारियों को ‘कानून के अनुसार’ पदोन्नति में आरक्षण देने की मंगलवार को अनुमति दे दी.
शीर्ष अदालत ने केंद्र की दलीलों पर गौर किया जिसमें कहा गया था कि विभिन्न उच्च न्यायालयों के आदेशों और शीर्ष अदालत द्वारा 2015 में इसी तरह के एक मामले में ‘यथास्थिति बरकरार’ रखने का आदेश दिए जाने से की वजह से पदोन्नति की समूची प्रक्रिया रुक गई है.
न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अवकाशकालीन पीठ ने कहा कि केंद्र के कानून के अनुसार पदोन्नति देने पर ‘रोक’ नहीं है. पीठ ने कहा, ‘यह स्पष्ट किया जाता है कि मामले पर आगे विचार किया जाना लंबित रहने तक भारत सरकार पर कानून के अनुसार पदोन्नति देने पर रोक नहीं है और यह आगे के आदेश पर निर्भर करेगा.’
सरकार ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर दिल्ली, बंबई और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के अलग-अलग फैसले हैं और शीर्ष अदालत ने भी उन फैसलों के खिलाफ दायर अपील पर अलग-अलग आदेश दिए थे.
पीठ ने केंद्र की ओर से उपस्थित अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल (एएसजी) मनिंदर सिंह से कहा, ‘हम आपसे (केंद्र) कहते हैं कि आप कानून के अनुसार पदोन्नति में आरक्षण पर आगे बढ़ सकते हैं.’ सुनवाई के दौरान एएसजी ने सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर पूर्व में सुनाए क्या जमा के बिना पदोन्नति हो सकती है? गए फैसलों का हवाला दिया और कहा कि एम नागराज मामले में शीर्ष अदालत का 2006 का फैसला लागू होगा.
एम नागराज फैसले में कहा गया था कि क्रीमी लेयर की अवधारणा सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होती है. 1992 के इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार (मंडल आयोग मामला) और 2005 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में फैसला अन्य पिछड़ा वर्ग में क्रीमी लेयर से संबंधित था.
सिंह ने कहा पीठ के समक्ष दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पिछले साल 23 अगस्त को सुनाए गए फैसले को केंद्र की तरफ से चुनौती दिए जाने का मामला है. उसमें 16 नवंबर 1992 से पांच साल पूरे होने के बाद भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के सरकार के आदेश को निरस्त कर दिया था.
शुरुआत में एएसजी ने शीर्ष अदालत के पहले के आदेशों और पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजे गए रेफरेंस का उल्लेख किया और दावा किया कि एक आदेश कहता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने का जहां तक सवाल है तो उसपर ‘यथास्थिति’ रहेगी.
उन्होंने इसी तरह के मामले में न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा 17 मई को दिये गए आदेश का उल्लेख किया जिसमें कहा गया कि उसके समक्ष लंबित याचिका पदोन्नति की दिशा में केंद्र की ओर से उठाए जाने वाले कदमों की राह में आड़े नहीं आनी चाहिए.
पीठ ने पूछा, ‘फिलहाल पदोन्नति कैसे हो रही है.’ इसपर एएसजी ने कहा, ‘पदोन्नति नहीं हो रही है. यह रुकी हुई है. यही समस्या है.’ उन्होंने कहा, ‘मैं सरकार हूं और मैं संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार आरक्षण देना चाहता हूं.’
उन्होंने अनुरोध किया कि वह उसी तरह का आदेश चाह रहे हैं जैसा 17 मई को दिया गया. उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत की एक अन्य पीठ ने इससे पहले कहा था कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ मुद्दे का परीक्षण करेगी कि क्या एम नागराज मामले में सुनाए गए फैसले पर दोबारा विचार किए जाने की जरूरत है या नहीं.
उसमें सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने के लिये ‘क्रीमी लेयर’ को लागू किए जाने के मुद्दे पर विचार किया गया था.
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 16 (4ए) का भी उल्लेख किया जो राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति को पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने में सक्षम बनाता है, बशर्ते उसकी राय हो कि सेवाओं में उन समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है.
पीठ ने कहा, ‘यह सक्षम क्या जमा के बिना पदोन्नति हो सकती है? बनाने वाला प्रावधान है.’ उसने कहा कि अनुच्छेद 16 (4ए) के अनुसार राज्य को संख्यात्मक आंकड़ों के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए मामला बनाना होगा.
उस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि आंकड़ा पिछड़ेपन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और समग्र कार्यक्षमता जैसे कारकों पर आधारित होना चाहिए. पीठ ने केंद्र की अपील को अन्य लंबित मामलों के साथ जोड़ दिया.
इससे पहले पिछले साल 15 नवंबर को शीर्ष क्या जमा के बिना पदोन्नति हो सकती है? अदालत की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात पर विचार करने पर सहमति जता दी थी कि क्या एम नागराज मामले में 11 साल पहले सुनाए गए फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है.
शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र सरकार की दो अधिसूचनाओं को संविधान के अनुच्छेद 16 (4ए) के दायरे से बाहर बताते हुए रद्द करने वाले बंबई उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया था.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने पिछले साल 23 अगस्त को अपने फैसले में कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर जारी 1997 के कार्यालय ज्ञापन को निरस्त कर दिया था.
उच्च न्यायालय ने समुदाय के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर आंकड़ों का संग्रह किए बिना पदोन्नति में आरक्षण देने से केंद्र को रोक दिया था. उच्चतम न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले में अपने फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को 16 नवंबर 1992 से पांच साल की अवधि के लिए पदोन्नति में आरक्षण देने की अनुमति दी थी.
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4.50 लाख कर्मचारियों को मिल सकती है सशर्त पदोन्नति, जानिए क्या कर रही सरकार
भोपाल। मध्यप्रदेश में पदोन्नति को लेकर राज्य सरकार दोहरे मापदंड अपना रही है. कर्मचारियों के संगठनों ने यह गंभीर आरोप लगाया है। उनका कहना है कि उच्च पदों पर पदोन्नति को हरी झंडी दी जा रही है जबकि छोटे कर्मचारियों पर रोक लगाई जा रही है. कर्मचारी संघों के पदाधिकारियों का स्पष्ट कहना है कि पदोन्नति के संबंध में सरकार का रवैया पूर्णत: भेदभावपूर्ण है। सरकार को समान नियम बनाकर कर्मचारियों की पदोन्नति करनी चाहिए। खास बात यह है कि राज्य सरकार कर्मचारियों को सशर्त पदोन्नति दे सकती है पर ऐसा करने की बजाए सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रही है.
राज्य वन सेवा के अधिकारियों को भारतीय वन सेवा में पदोन्नत किया जा रहा है। डाक्टरों को भी पदोन्नति दी जा रही है. स्वास्थ्य विभाग ने 451 डाक्टरों को द्वितीय से प्रथम श्रेणी में पदोन्नत किया है। इससे पहले राज्य सरकार राज्य वन सेवा, जल संसाधन विभाग में अभियंताओं और पशुपालन विभाग के डाक्टरों को पदोन्नति दे चुकी है। पुलिस विभाग में मैदानी कर्मचारियों को वरिष्ठ पद का प्रभार दिया गया है।
प्रदेश में 6 साल से पदोन्नति पर रोक है। प्रदेश में वर्तमान में साढ़े चार लाख से अधिक नियमित कर्मचारी हैं। सभी कर्मचारियों को पदोन्नति का लाभ नहीं दिया जा रहा है. पदोन्नति में आरक्षण का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और इसी को आधार बनाकर राज्य सरकार तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को पदोन्नत नहीं कर रही है. सुप्रीम कोर्ट ने एमपी हाईकोर्ट के फैसले को यथास्थिति रखा है।
कर्मचारियों को सशर्त पदोन्नति दे सकती है सरकार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे अधिकारी— इधर आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के कर्मचारी संयुक्त रूप से राज्य सरकार से कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अधीन सशर्त पदोन्नति दे दें। फिर भी राज्य सरकार कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार कर रही है।
30 अप्रैल 2016 को एमपी हाईकोर्ट ने मप्र लोक सेवा (पदोन्नति) नियम 2002 निरस्त कर दिया था. राज्य में तब से ही पदोन्नति पर रोक लगी है। इसके बाद से लेकर अब तक राज्य के 70 हजार से ज्यादा कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इनमें से 36 हजार कर्मचारियों को पदोन्नति नहीं मिली।